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ईमानदारी
विक्की अपने स्कूल में होने वाले स्वतंत्रता दिवस समारोह को ले कर बहुत उत्साहित था। वह भी परेड़ में हिस्सा ले रहा था।
दूसरे दिन वह एकदम सुबह जग गया लेकिन घर में अजीब सी शांति थी। वह दादी के कमरे में गया, लेकिन वह दिखाई नहीं पड़ी।
“माँ, दादीजी कहाँ हैं?” उसने पूछा।
“रात को वह बहुत बीमार हो गई थीं। तुम्हारे पिताजी उन्हें अस्पताल ले गए थे, वह अभी वहीं हैं उनकी हालत काफी खराब है।
विक्की एकाएक उदास हो गया।
उसकी माँ ने पूछा, “क्या तुम मेरे साथ दादी जी को देखने चलोगे? चार बजे मैं अस्पताल जा रही हूँ।”
विक्की अपनी दादी को बहुत प्यार करता था। उसने तुरंत कहा, “हाँ, मैं आप के साथ चलूँगा।” वह स्कूल और स्वतंत्रता दिवस के समारोह के बारे में सब कुछ भूल गया।
स्कूल में स्वतंत्रता दिवस समारोह बहुत अच्छी तरह संपन्न हो गया। लेकिन प्राचार्य खुश नहीं थे। उन्होंने ध्यान दिया कि बहुत से छात्र आज अनुपस्थित हैं।
उन्होंने दूसरे दिन सभी अध्यापकों को बुलाया और कहा, “मुझे उन विद्यार्थियों के नामों की सूची चाहिए जो समारोह के दिन अनुपस्थित थे।”
आधे घंटे के अंदर सभी कक्षाओं के विद्यार्थियों की सूची उन की मेज पर थी। कक्षा छे की सूची बहुत लंबी थी। अत: वह पहले उसी तरफ मुड़े।
जैसे ही उन्होंने कक्षा छे में कदम रखे, वहाँ चुप्पी सी छा गई। उन्होंने कठोरतापूर्वक कहा, “मैंने परसों क्या कहा था?”
“यही कि हम सब को स्वतंत्रता दिवस समारोह में उपस्थित होना चाहिए,” गोलमटोल उषा ने जवाब दिया।
“तब बहुत सारे बच्चे अनुपस्थित क्यों थे?” उन्होंने नामों की सूची हवा में हिलाते हुए पूछा।
फिर उन्होंने अनुपस्थित हुए विद्यार्थियों के नाम पुकारे, उन्हें डाँटा और अपने डंडे से उनकी हथेलियों पर मार लगाई।
“अगर तुम लोग राष्ट्रीय समारोह के प्रति इतने लापरवाह हो तो इसका मतलब यही है कि तुम लोगों को अपनी मातृभूमि से प्यार नहीं है। अगली बार अगर ऐसा हुआ तो मैं तुम सबके नाम स्कूल के रजिस्टर से काट दूँगा।”
इतना कह कर वह जाने के लिए मुड़े तभी विक्की आ कर उन के सामने खड़ा हो गया।
“क्या बात है?”
“महोदय, विक्की भयभीत पर दृढ़ था, मैं भी स्वतंत्रता दिवस समारोह में अनुपस्थित था, पर आप ने मेरा नाम नहीं पुकारा।” कहते हुए विक्की ने अपनी हथेलियाँ प्राचार्य महोदय के सामने फैला दी।
सारी कक्षा साँस रोक कर उसे देख रही थी।
प्राचार्य कई क्षणों तक उसे देखते रहे। उनका कठोर चेहरा नर्म हो गया और उन के स्वर में क्रोध गायब हो गया।
“तुम सजा के हकदार नहीं हो, क्योंकि तुम में सच्चाई कहने की हिम्मत है। मैं तुम से कारण नहीं पूछूँगा, लेकिन तुम्हें वचन देना होगा कि अगली बार राष्ट्रीय समारोह को नहीं भूलोगे। अब तुम अपनी सीट पर जाओ।
विक्की ने जो कुछ किया, इसकी उसे बहुत खुशी थी।



अनोखी तरकीब
बहुत पुरानी बात है। एक अमीर व्यापारी के यहाँ चोरी हो गयी। बहुत तलाश करने के बावजूद सामान न मिला और न ही चोर का पता चला। तब अमीर व्यापारी शहर के काजी के पास पहुँचा और चोरी के बारे में बताया।
सबकुछ सुनने के बाद काजी ने व्यापारी के सारे नौकरों और मित्रों को बुलाया। जब सब सामने पहुँच गए तो काजी ने सब को एक-एक छड़ी दी। सभी छड़ियाँ बराबर थीं। न कोई छोटी न बड़ी।
सब को छड़ी देने के बाद काजी बोला, “इन छड़ियों को आप सब अपने अपने घर ले जाएँ और कल सुबह वापस ले आएँ। इन सभी छड़ियों की खासियत यह है कि यह चोर के पास जा कर ये एक उँगली के बराबर अपने आप बढ़ जाती हैं। जो चोर नहीं होता, उस की छड़ी ऐसी की ऐसी रहती है। न बढ़ती है, न घटती है। इस तरह मैं चोर और बेगुनाह की पहचान कर लेता हूँ।”
काजी की बात सुन कर सभी अपनी अपनी छड़ी ले कर अपने अपने घर चल दिए।
उन्हीं में व्यापारी के यहाँ चोरी करने वाला चोर भी था। जब वह अपने घर पहुँचा तो उस ने सोचा, “अगर कल सुबह काजी के सामने मेरी छड़ी एक उँगली बड़ी निकली तो वह मुझे तुरंत पकड़ लेंगे। फिर न जाने वह सब के सामने कैसी सजा दें। इसलिए क्यों न इस विचित्र छड़ी को एक उँगली काट दिया जााए। ताकि काजी को कुछ भी पता नहीं चले।’
चोर यह सोच बहुत खुश हुआ और फिर उस ने तुरंत छड़ी को एक उँगली के बराबर काट दिया। फिर उसे घिसघिस कर ऐसा कर दिया कि पता ही न चले कि वह काटी गई है।
अपनी इस चालाकी पर चोर बहुत खुश था और खुशीखुशी चादर तान कर सो गया। सुबह चोर अपनी छड़ी ले कर खुशी खुशी काजी के यहाँ पहुँचा। वहाँ पहले से काफी लोग जमा थे।
काजी १-१ कर छड़ी देखने लगे। जब चोर की छड़ी देखी तो वह १ उँगली छोटी पाई गई। उस ने तुरंत चोर को पकड़ लिया। और फिर उस से व्यापारी का सारा माल निकलवा लिया। चोर को जेल में डाल दिया गया।
सभी काजी की इस अनोखी तरकीब की प्रशंसा कर रहे थे।


धूर्त भेड़िया

ब्रह्मारण्य नामक एक बन था। उसमें कर्पूरतिलक नाम का एक बलशाली हाथी रहता था। देह में और शक्ति में सबसे बड़ा होने से बन में उसका बहुत रौब था। उसे देख सारे बाकी पशु प्राणी उससे दूर ही रहते थे।
जब भी कर्पूरतिलक भूखा होता तो अपनी सूँड़ से पेड़ की टहनी आराम से तोड़ता और पत्ते मज़े में खा लेता। तालाब के पास जा कर पानी पीता और पानी में बैठा रहता। एक तरह से वह उस वन का राजा ही था। कहे बिना सब पर उसका रौब था। वैसे ना वह किसी को परेशान करता था ना किसी के काम में दखल देता था फिर भी कुछ जानवर उससे जलते थे।
जंगल के भेड़ियों को यह बात अच्छी नहीं लगती थी। उन सब ने मिलकर सोचा, “किसी तरह इस हाथी को सबक सिखाना चाहिये और इसे अपने रास्ते से हटा देना चाहिये। उसका इतना बड़ा शरीर है, उसे मार कर उसका मांस भी हम काफी दिनों तक खा सकते हैं। लेकिन इतने बड़े हाथी को मारना कोई बच्चों का खेल नहीं। किसमें है यह हिम्मत जो इस हाथी को मार सके?”
उनमें से एक भेड़िया अपनी गर्दन ऊँची करके कहने लगा, “उससे लड़ाई करके तो मैं उसे नहीं मार सकता लेकिन मेरी बुद्धिमत्ता से मैं उसे जरूर मारने में कामयाब हो सकता हूँ।” जब यह बात बाकी भेड़ियों ने सुनी तो सब खुश हो गये। और सबने उसे अपनी करामत दिखाने की इज़ाज़त दे दी।
चतुर भेड़िया हाथी कर्पूरतिलक के पास गया और उसे प्रणाम किया। “प्रणाम! आपकी कृपा हम पर सदा बनाए रखिये।”
कर्पूरतिलक ने पूछा, “कौन हो भाई तुम? कहाँ से आये हो? मैं तो तुम्हें नहीं जानता। मेरे पास किस काम से आये हो?”
“महाराज! मैं एक भेड़िया हूँ। मुझे जंगल के सारे प्राणियों ने आपके पास भेजा है। जंगल का राजा ही सबकी देखभाल करता है, उसीसे जंगल की शान होती है। लेकिन अफसोस की बात यह है कि अपने जंगल में कोई राजा ही नहीं। हम सब ने मिलकर सोचा कि आप जैसे बलवान को ही जंगल का राजा बनाना चाहिये। इसलिये राज्याभिषेक का मुहुर्त हमने निकाला है। यदि आपको कोई आपत्ति नहीं हो तो आप मेरे साथ चल सकते हैं और हमारे जंगल के राजा बन सकते हैं।”
ऐसी राजा बनने की बात सुनकर किसे खुशी नहीं होगी? कर्पूरतिलक भी खुश हो गया। अभी थोड़ी देर पहले तो मैं कुछ भी नहीं था और एकदम राजा बन जाऊँगा यह सोचकर उसने तुरन्त हामी भर दी। दोनो चल पडे। भेड़िया कहने लगा, “मुहुर्त का समय नज़दीक आ रहा है, जरा जल्दी चलना होगा हमें।”
भेड़िया जोर जोर से भागने लगा और उसके पीछे कर्पूरतिलक भी जैसे बन पड़े, भागने की केाशिश में लगा रहा। बीच में एक तालाब आया। उस तालाब में ऊपर ऊपर तो पानी दिखता था। लेकिन नीचे काफी दलदल था। भेड़िया छोटा होने के कारण कूद कर तालाब को पार कर गया और पीछे मुड़कर देखने लगा कि कर्पूरतिलक कहाँ तक पहुँचा है।
कर्पूरतिलक अपना भारी शरीर लेकर जैसे ही तालाब में जाने लगा तो दलदल में फंसता ही चला गया। निकल न पाने के कारण में वह भेड़िये को आवाज़ लगा रहा था, “अरे! दोस्त, मुझे जरा मदद करोगे? मैं इस दलदल से निकल नहीं पा रहा हूँ।”
लेकिन भेड़िये का ज़वाब तो अलग ही आया, “अरे! मूर्ख हाथी, मुझ जैसे भेड़िये पर तुमने यकीन तो किया लेकिन अब भुगतो और अपनी मौत की घड़ियाँ गिनते रहो, मैं तो चला!” यह कहकर भेड़िया खुशी से अपने साथियों को यह खुशखबरी देने के लिये दौड़ पड़ा।
बेचारा कर्पूरतिलक!
इसीलिये कहा गया है कि एकदम से किसी पर यकीन ना करने में ही भलाई होती है।

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